Monday, December 03, 2012

कारण



कुछ भी यूँ ही नहीं है होता
सबके पीछे कोई कारण है होता
सफलता या असफलता
मनुष्य अपने कर्मों का फल है भोगता

फिर ऊपर बैठा भगवान क्या है करता
क्या वह मानव का अविष्कार है
या उसका भाग्य विधाता
या फिर उसके कर्मों का धाता

- प्रत्यूष

Thursday, November 15, 2012

खिड़की



जिन्दगी कितना हँसाती है
जिन्दगी कितना रुलाती है
उलझने बनाती है, सुलझाती है
जब सारे दरवाजे बंद करती है
तो एक खिड़की खोल जाती है

कभी सब कुछ असाध्य कर जाती है
कभी छप्पर फाड़ कर दे जाती है
पर हर रात के बाद सुबह आती है
और सुबह के बाद रात दे जाती है

जब हँस के खुशियाँ बटोरीं हैं
तो रो के दुःख भी समेटो
खुशियों के पल कम लगते हैं
और दुःख सदियों में फैले लगते हैं
पर जिन्दगी जब सारे दरवाजे बंद करती है
तो एक खिड़की खोल जाती है


खिड़की का मतलब जीना है
असाध्य को साधना है
तैयार होना है की जब दरवाजे खुलें
तो नयी हवायें उड़ा न दे हमें
क्यूंकि जिन्दगी ने हमारे सोच से
परे कि जिन्दगी देखी है

- प्रत्यूष 

Challenges are inevitable
but defeat is optional !


Thursday, October 04, 2012

राहुल भईया



ये तो बिना बने ही बने बनाये हैं
राहुल भईया तो किस्मत ऊपर से लिखवा लाये हैं
जब नेता को ढुंढती जनता आगे
राहुल भईया पीछे पाए जात हैं

भ्रष्टाचार में डूबा जा रहा देश
महंगाई ने ले ली जो बचा रहा शेष
देश की जनता के अवशेषों पर
राहुल भईया पर्यटन करने जात हैं

कलावती के घर नहीं पहुंची अब तक परमाणु बिजली
विदर्भ के किसानों की जान कर्जों ने ले ली
आसाम, उत्तर प्रदेश में हो रहे दंगे
पर राहुल भईया कहीं नहीं दिखाय जात हैं

अमेठी के गावों में आज तक नहीं पहुंची सड़क और बिजली
लोकसभा में उपस्थिति भी काफी कम हो ली
युपी में नाटकबाजी काम न आयी
साइकिल पर जनता ने जम के मुहर लगाई
पर राहुल भईया प्रधानमंत्री बनने जात हैं

ये तो बिना बने ही बने बनाये हैं
राहुल भईया तो किस्मत ऊपर से लिखवा लाये हैं

- प्रत्यूष

Saturday, September 29, 2012

मैगी



कोई नहीं होगी
जैसी है मेरी मैगी

बिखेरती निश्चल प्यार की आभा
समझती है आँखों की भाषा
बिना बोले भी सिखाई है उसने
जीवन की परिभाषा

हजारों कष्टों के बाद भी
जीती है वो हर पल
बेख़ौफ़, निडर, उच्छल
खुशियाँ बांटती प्रतिपल

जानता हूँ कुछ ही वर्षों का साथ है हमारा
पर मैंने भी किया है एक इरादा
जब तक रहूँगा
एक मैगी का अंश रखूँगा
जो याद दिलाएगा इसका प्यार
बनेगा हर कठिनाइयों में मेरा तारणहार

कोई नहीं होगी
जैसी है मेरी मैगी !

- प्रत्यूष 

Thursday, September 20, 2012

कठिनाइयाँ




सरलता से मुझे कुछ मिला नहीं
कठिनाई ही है सखा मेरी
पर लक्ष्य कोई बड़ा नहीं
हारा वही जो लड़ा नहीं

हीरे कोयले का  भेद समझ
और स्वयं चमक हीरे की तरह
है बड़ा हुआ जो मुश्किल में
कोहिनूर बना वो पूरी तरह

यज्ञ में सदा विघ्न डालते असुर
विघ्नों को पार कर
असुरों का संहार कर
कठिनाइयों से हो पोषित
कर विश्व को सम्मोहित

-प्रत्यूष

संपादक श्री सेतु सिन्हा जी को कोटि कोटि धन्यवाद्  । 

Monday, July 16, 2012

समय चक्र



अब नींद कहाँ इन आँखों को
अब चैन कहाँ इन जज्बातों  को
समय चक्र की गति कर रही हैरान 
कल तक था जीवन  वीरान 


अचानक टकराया अपना आधा हिस्सा लस्त-पस्त 
पर पल भर की मुलाकात कर गयी आश्वस्त
उसके सौम्य बातों पर हो मुग्ध
कर बैठा अपना एकाकीपन दग्ध

- प्रत्यूष





Sunday, June 24, 2012

कभी उदास मत होना




समय अब  वह  आ  चला
जब अवसादों  को  पीछे  छोड़ो
भविष्य  की  नूतन  राहें  खोलो
जो  हुआ, उसमें तुम्हारा  भी था योगदान
बनो मत इतने नादान

जीवन  है परिवर्तनशील
लगाव  जाती है इसको लील
पर जीना नहीं  छोड़ना
और ना  ही  नये  सपने  संजोना

अपनी  राख से उठना
अनुभवों  को  संजोना
संस्कारों  को ना  छोड़ना
ना ही रिश्तों को कभी ढ़ोना

परकष्ट का कारण ना होना
जब तक जीना  खुल  कर जीना
फिर  कभी उदास  मत  होना

- प्रत्यूष


श्वेता दीदी का हार्दिक आभार, संपादन, मार्गदर्शन और आशीष हेतु !

देश पहले




[1]
एक  समय  का विश्वगुरु
एक  समय  का  सर्वसमृद्ध  , सर्वशक्तिशाली  साम्राज्य 
आज क्यूँ  हो रहा भारत पीछे ?
क्यूँ  हो रहा समाज  विघटित ?


इतने साधन  इतने  सुविचार 
पर कहीं खोता जा  रहा  सदाचार 
हम  सब  चाह रहे ख़ुशी  और  शांति 
फिर  कौन फैला  रहा अशांति 


ढूंढा  उसको  बहुत इधर -उधर 
पर मिला  वो हम सबके  अन्दर 
मंजिल  तो नेक होती है हमारी 
पर राह  में  मति  जाती है  मारी 
जब मंजिल है ख़ुशी  और शांति 
फिर राह  पर क्यों  फैला  रहे  अशांति 


घटती  नैतिकता, बढती  भौतिकता 
क्यों  चाहिए  इतना, जो प्रयोग  ना हो  जीवन  भर 
और जिसके आस में मिट जायें, कई जिंदगियाँ दहलीज  ही पर 
सिर्फ  लेना  ही नहीं, होना चाहिए  जीवन का विचार 
देने  का भी करना होगा  शिष्टाचार 


होगा तब आने वाला कल बेहतर 
जब  सोचेंगे  खुद  से  परे 
जब सोचेंगे  देश  पहले 


[2]
देखो  जा कर  गावों  और पहाड़ों  में आज भी  जिन्दा  है  मानवता
क्यों  शहरों  में  ही फैलती  जा  रही दलनता 
संतुष्टि  और समाज का चिंतन है वहाँ आगे 
शहरों  में  लोग भौतिकता  के पीछे  भागे 


यह  सृष्टि  नहीं  सिर्फ तुम्हारी 
तुम हो बस किरायेदार 
कुछ वर्षों के यहाँ  पर 
फिर भी बैठे हो यहाँ  भृकुटी  तान 
जैसे मिला हो अमरत्व  का वरदान 


मकान  छोड़ने  से पहले  गन्दा मत  उसे करो तुम 
खुद  से पहले औरों  की सोचों  तुम 
सोचो बड़ा सिर्फ अपने पीछे मत भागो 
कभी खुशियाँ भी अपनी बंदूक से दागो 


देने में  आता  है ज्यादा  मज़ा 
मत दो, अपने को स्वार्थी  बन सजा 
सोचों  खुद से परे 
सोचो  देश पहले 


[3]
धर्म, जाति, गोत्र  बतलाकर, अपने को बड़ा  बतलाते  हो
अरे  कहाँ गया पुरुषार्थ , जो इनमे शरण पाते हो 
क्या याद भी है, गाँधी  था  एक साहूकार 
और दिनकर एक  भूमिहार 
सीमाओं पर  दी कितनों  ने प्राणों  की आहुति 
क्या जानते हो उनकी जाति ?


पांच  हज़ार  वर्षों  का इतिहास  है हमारा 
कितनो ने राष्ट्र  पर सबकुछ  है दे गुजारा 
इतिहास याद रखता है उनको 
जिन्होंने ने किया राष्ट्र  पर समर्पण  खुद को 


आज हम घर बैठ कर चैन की रोटी खाते हैं 
उसमे ना जाने कितना अपना  पसीना  मिलाते  हैं 
नहीं पूछते  हम उन सब की जात 
पर जब अपने फायदे की हो बात,
तो देश में  आग लगाते हम 
मारते और मर जाते हम 


उठो जागो, अब भी है समय 
दानावल फैले  उससे  पहले  यह 
इस  अनल  को मिल आज बुझाते हैं 
खुद से पहले औरों की सोच जाते हैं 


बनाते हैं इस धरा को, कल से बेहतर 
सोचते हैं खुद से पहले 
सोचते हैं देश पहले 


[4]
रखो सदा यह प्रतिपल ध्यान
पृथ्वी  पर हो कुछ पल के मेहमान 
लो उतना ही जितना हो पोषक 
मत बनो अनजाने ही शोषक 


जमा कर रहे किस के लिए ये सब 
जब नहीं हुआ कोई अमर अब तक 
बच्चों का मत लेना नाम 
उन्हें जग मैं करना खुद है अपना काम 


घर मैं ही देखो, कितना इकठ्ठा किया है सामान 
जो नहीं आया वर्षों  से काम 
भोजन भी रोज करते बरबाद 
जब हो सकते हैं , कितने उससे आबाद 
जब लाखों मर रहे भूख से 
और हम फेंक  रहे गुरुर  से 


कहाँ ले जायेगा ये स्वार्थीपन 
देख लो ज़रा  ये दर्पण 
ये कालाबाज़ारी  रोकें हम 
दूसरों  की भी सोचें  हम 
सोचें  खुद से परे 
सोचें देश पहले 


प्रत्यूष 

Monday, May 14, 2012

अंतरद्दंद्द



जीवन रूपी  सागर  मैं उमड़ती हैं अनेक  लहरें
और  ढूँढतीं हैं, अपने पैदा होने का कारण
कुछ  पहुँच  जाती हैं  अपने  किनारों पर
कई खो जाती हैं, समय  की गहराइयों मे उतर  
जीवन  से मिले उन  अनेक  अनुभवों से करता है मेरा मस्तिष्क द्दंद्द
फिर ह्रदय  है  सृजता यह अंतरद्दंद्द !  


प्रत्यूष 


श्री सेतु सिन्हा जी को संपादन  और  मार्गदर्शन  हेतु  कोटि कोटि  धन्यवाद  ! 

रुको नहीं



जीवन  में  कुछ  ऐसे  पल   आते हैं, जो आपको बेबस और असहाय कर जाते हैं 
वह आपको बहुत कुछ सिखला जाते हैं, और जीवन की दिशा बदल जाते हैं 
समझा जाते हैं कि  सपने यथार्थ में कैसे बदले जाते हैं 
जब कठिनाइयाँ घेरें और कोई रास्ता न आये नज़र 
तो रो लो, कर लो विश्राम, पर तलाशो अपनी गलतियां निष्पक्ष चिंतन कर 
पर रुको नहीं 
अपने सपनों को टूटने मत दो 

समय जो घाव देता है, वो समय ही भरता है 
उन कठिन क्षणों मैं धैर्य रखो और भरने दो उन घावों को 
और अपने सही समय का इंतज़ार करो 
पर रुको नहीं 
नयी संभावनाएं, नए  रास्ते तलाश  करो 

अपनी मेहनत  और भाग्य से आगे बढ़ता है मानव 
कैसे हुआ , किसकी गलती, अगिनत सुख, अगिनत दुःख 
इन सब का कारण वह कभी खुद को कभी खुदा को बता जाता है 
पर भूल जाता है, कि यह जीवन  है  एक अथाह सागर
जिसकी सीमाएं जानता है सिर्फ  ईश्वर 
उसने देखी है हमारी उड़ान, और जानता है वो हमारा सामर्थ्य भी 
और उसने न  चाहा  हमारा बुरा कभी 


इसलिए बीच बीच में  सिखलाता है 
कभी सुख  दे कर कभी दुःख  दे  कर 
शांत चित से उसके इशारे समझने चाहिए 
और बढना चाहिए अपने सपनों की और  निरंतर
निर्विवाद, अविराम, अनवरत और अनश्वर !


प्रत्यूष 


आभार :
माँ और श्री मानस  प्रकाश  जी  को संपादन  और मार्गदर्शन हेतु ! 


Monday, May 07, 2012

चांद





क्या यह सब सिर्फ भाग्य का खेल है ?
क्या मनुष्य किसी के हाथ की कठपुतली मात्र है ?
क्या वो अ पनी मेहनत से पा सकता है असंभव भी ?
या वो भी लिख दिया गया है उसके जन्मने से पहले ?

जो आता है इस धरा पर उसे जाना तो है 
पर जाओ तो कुछ  ऐसा करके की, दुनिया याद रख जाये 
कुछ ऐसा करके की दुनिया, फिर वैसी ही ना रह जाये    
यह  सिर्फ  अपने उत्थान से नहीं होगा
और यह  भी सत्य है की पहले स्वयं काबिल बनना होगा 
लेकिन फिर समाज उत्थान में लगना ही होगा 

उसके लिए राजनेता बनने या सत्ता का मिलना जरूरी नहीं 
उसके लिए बस  जन कल्याण का भाव मन मैं रखना  होगा 
और मेरा तेरा से बचना होगा 
ये शरीर और पैसा तो साधन  मात्र है , इसका स्वार्थ छोड़ना होगा 

करोड़ों हृदयों को अपने कर्मों से छूना होगा 
तब सार्थक होगा ये जीवन,
तब जाने के बाद भी याद रखेगी यह दुनिया 
तब चाँद भी कह उठेगा
हाँ ऐसा भी एक मानव  देखा मैंने इस  धरा पर विचरते ! 

-प्रत्यूष 

(सम्पादक: श्री मानस  प्रकाश को  कोटि कोटि धन्यवाद ! )