जीवन की इस जंकदनि में
कविता का जनन कैसे हो ?
समय के इस विशृंखलता में
ह्रदय में प्रस्फुटन कैसे हो ?
याद आता है तुशिता* का वो प्रवास
जहाँ मिला था, मैं अपने आप से
कुछ उत्तर जो ढूढ़ रहा था
निकले थे वो ह्रदय के वास से
मन के भीतर ही था शिव का बसेरा
और मैं ढूँढ़ता रहा उसे पत्थर के शिवालों में
थाम कर अपने मन के रफ़्तार को
मिला था मैं उस दुबके अपने आप से
शिवतत्व है सब में बसता
पहचानों उस प्रछन्न स्त्रोत को
क्योंकी जब आत्मा का मिलन अंतरात्मा से है होता
तब ही सृजन है सजता
-प्रत्यूष
* तुशिता: http://www.tushita.info/
अनुजा प्रज्ञा को आभार !

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