Sunday, June 24, 2012

कभी उदास मत होना




समय अब  वह  आ  चला
जब अवसादों  को  पीछे  छोड़ो
भविष्य  की  नूतन  राहें  खोलो
जो  हुआ, उसमें तुम्हारा  भी था योगदान
बनो मत इतने नादान

जीवन  है परिवर्तनशील
लगाव  जाती है इसको लील
पर जीना नहीं  छोड़ना
और ना  ही  नये  सपने  संजोना

अपनी  राख से उठना
अनुभवों  को  संजोना
संस्कारों  को ना  छोड़ना
ना ही रिश्तों को कभी ढ़ोना

परकष्ट का कारण ना होना
जब तक जीना  खुल  कर जीना
फिर  कभी उदास  मत  होना

- प्रत्यूष


श्वेता दीदी का हार्दिक आभार, संपादन, मार्गदर्शन और आशीष हेतु !

देश पहले




[1]
एक  समय  का विश्वगुरु
एक  समय  का  सर्वसमृद्ध  , सर्वशक्तिशाली  साम्राज्य 
आज क्यूँ  हो रहा भारत पीछे ?
क्यूँ  हो रहा समाज  विघटित ?


इतने साधन  इतने  सुविचार 
पर कहीं खोता जा  रहा  सदाचार 
हम  सब  चाह रहे ख़ुशी  और  शांति 
फिर  कौन फैला  रहा अशांति 


ढूंढा  उसको  बहुत इधर -उधर 
पर मिला  वो हम सबके  अन्दर 
मंजिल  तो नेक होती है हमारी 
पर राह  में  मति  जाती है  मारी 
जब मंजिल है ख़ुशी  और शांति 
फिर राह  पर क्यों  फैला  रहे  अशांति 


घटती  नैतिकता, बढती  भौतिकता 
क्यों  चाहिए  इतना, जो प्रयोग  ना हो  जीवन  भर 
और जिसके आस में मिट जायें, कई जिंदगियाँ दहलीज  ही पर 
सिर्फ  लेना  ही नहीं, होना चाहिए  जीवन का विचार 
देने  का भी करना होगा  शिष्टाचार 


होगा तब आने वाला कल बेहतर 
जब  सोचेंगे  खुद  से  परे 
जब सोचेंगे  देश  पहले 


[2]
देखो  जा कर  गावों  और पहाड़ों  में आज भी  जिन्दा  है  मानवता
क्यों  शहरों  में  ही फैलती  जा  रही दलनता 
संतुष्टि  और समाज का चिंतन है वहाँ आगे 
शहरों  में  लोग भौतिकता  के पीछे  भागे 


यह  सृष्टि  नहीं  सिर्फ तुम्हारी 
तुम हो बस किरायेदार 
कुछ वर्षों के यहाँ  पर 
फिर भी बैठे हो यहाँ  भृकुटी  तान 
जैसे मिला हो अमरत्व  का वरदान 


मकान  छोड़ने  से पहले  गन्दा मत  उसे करो तुम 
खुद  से पहले औरों  की सोचों  तुम 
सोचो बड़ा सिर्फ अपने पीछे मत भागो 
कभी खुशियाँ भी अपनी बंदूक से दागो 


देने में  आता  है ज्यादा  मज़ा 
मत दो, अपने को स्वार्थी  बन सजा 
सोचों  खुद से परे 
सोचो  देश पहले 


[3]
धर्म, जाति, गोत्र  बतलाकर, अपने को बड़ा  बतलाते  हो
अरे  कहाँ गया पुरुषार्थ , जो इनमे शरण पाते हो 
क्या याद भी है, गाँधी  था  एक साहूकार 
और दिनकर एक  भूमिहार 
सीमाओं पर  दी कितनों  ने प्राणों  की आहुति 
क्या जानते हो उनकी जाति ?


पांच  हज़ार  वर्षों  का इतिहास  है हमारा 
कितनो ने राष्ट्र  पर सबकुछ  है दे गुजारा 
इतिहास याद रखता है उनको 
जिन्होंने ने किया राष्ट्र  पर समर्पण  खुद को 


आज हम घर बैठ कर चैन की रोटी खाते हैं 
उसमे ना जाने कितना अपना  पसीना  मिलाते  हैं 
नहीं पूछते  हम उन सब की जात 
पर जब अपने फायदे की हो बात,
तो देश में  आग लगाते हम 
मारते और मर जाते हम 


उठो जागो, अब भी है समय 
दानावल फैले  उससे  पहले  यह 
इस  अनल  को मिल आज बुझाते हैं 
खुद से पहले औरों की सोच जाते हैं 


बनाते हैं इस धरा को, कल से बेहतर 
सोचते हैं खुद से पहले 
सोचते हैं देश पहले 


[4]
रखो सदा यह प्रतिपल ध्यान
पृथ्वी  पर हो कुछ पल के मेहमान 
लो उतना ही जितना हो पोषक 
मत बनो अनजाने ही शोषक 


जमा कर रहे किस के लिए ये सब 
जब नहीं हुआ कोई अमर अब तक 
बच्चों का मत लेना नाम 
उन्हें जग मैं करना खुद है अपना काम 


घर मैं ही देखो, कितना इकठ्ठा किया है सामान 
जो नहीं आया वर्षों  से काम 
भोजन भी रोज करते बरबाद 
जब हो सकते हैं , कितने उससे आबाद 
जब लाखों मर रहे भूख से 
और हम फेंक  रहे गुरुर  से 


कहाँ ले जायेगा ये स्वार्थीपन 
देख लो ज़रा  ये दर्पण 
ये कालाबाज़ारी  रोकें हम 
दूसरों  की भी सोचें  हम 
सोचें  खुद से परे 
सोचें देश पहले 


प्रत्यूष